मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

वेलेंटाइन


हसरतों की एक शाम थी

वो इतनी गुलाबी थी जैसे कि तुम 

और मैं इतना रूमानी जैसे कि ये आकाश 

जरा देखो तो कैसे बाहें फैलाये खड़ा है 

रूह मे घुलने की हसरत लिए उस रोज 

तुम भी तो आ गई थी मेरी बाहों मे 

 

मैं भी कितना पिघला था 

शायद अपनी जड़ों तक 

 

सृष्टि के विस्तार तक 

फैल जाना चाहती थी तुम मुझमे 

और मैं पाताल की गहराई तक 

तुम्हारे वजूद मे घुलता चला गया 

तब जैसा कि तुम्हें चाहिए था 

हमने रचा एक भविष्य 

तुम्हारी हसरतों को मिला आधार 

और फिर पिघलती चली गई शाम 

अगली भोर के आने तक 

 

काश! तुम देख पाती क्षितिज

कितना विस्तार पा गया आज 

कोई शिरा तक नहीं दिखता 

जिसकी ऊंगली थाम मैं पार कर सकूँ 

समय के इस मझधार को 

पहुंचा सकूँ खुद की सलामती 

तुम्हारे बिखरे आँचल तक 

 

इस संध्या जब कि फिर वो दिन आया 

आज हमारा भविष्य लौट रहा 

वहीं पीछे जहां से हमने शुरू किया 

कभी न रुकने वाले द्वंद,

एक ज़ोर आजमाइस की 

 

आज वेलेंटाइन दिवस पर 

उसने दे दिया अपनी पत्नी को 

उसकी उमंगों का वही उपहार 

देखो वो छोड़ गया मुझे भी

वृद्धाश्रम की ड्योढ़ी...................मुकेश


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