हसरतों की एक शाम थी
वो इतनी गुलाबी थी जैसे कि तुम
और मैं इतना रूमानी जैसे कि ये आकाश
जरा देखो तो कैसे बाहें फैलाये खड़ा है
रूह मे घुलने की हसरत लिए उस रोज
तुम भी तो आ गई थी मेरी बाहों मे
मैं भी कितना पिघला था
शायद अपनी जड़ों तक
सृष्टि के विस्तार तक
फैल जाना चाहती थी तुम मुझमे
और मैं पाताल की गहराई तक
तुम्हारे वजूद मे घुलता चला गया
तब जैसा कि तुम्हें चाहिए था
हमने रचा एक भविष्य
तुम्हारी हसरतों को मिला आधार
और फिर पिघलती चली गई शाम
अगली भोर के आने तक
काश! तुम देख पाती क्षितिज
कितना विस्तार पा गया आज
कोई शिरा तक नहीं दिखता
जिसकी ऊंगली थाम मैं पार कर सकूँ
समय के इस मझधार को
पहुंचा सकूँ खुद की सलामती
तुम्हारे बिखरे आँचल तक
इस संध्या जब कि फिर वो दिन आया
आज हमारा भविष्य लौट रहा
वहीं पीछे जहां से हमने शुरू किया
कभी न रुकने वाले द्वंद,
एक ज़ोर आजमाइस की
आज वेलेंटाइन दिवस पर
उसने दे दिया अपनी पत्नी को
उसकी उमंगों का वही उपहार
देखो वो छोड़ गया मुझे भी
वृद्धाश्रम की ड्योढ़ी...................मुकेश
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