मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

दिग्गी टंचिकायेँ


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कई बार 
निराश हो जाता हूँ 
घर से निकलने से पहले
भीषण तपिश मे 
कलेजा जैसे मुह को आ जाता है
पर बाहर आते ही
सड़क की दोनों तरफ 
टंचवेग मे मुसकुराती 
दिग्विजय टंचिकाओं का सम्मोहन 
सम्हाल लेता है मुझे 
और लगता है जैसे 
मैं भी बना हूँ 
बाहर सड़क के लिए,
इन टंचिकाओं के लिए...
पर अफसोस!
मैं दिग्विजय नहीं!
इसलिए खुद को गरियाता 
तपिश के बावजूद 
मैं नहीं रुकता सड़क किनारे 
जहां दिग्गी संभावनाओं को तलाशते 
युवाओं की भीड़ लगी रहती है 
टंचिकाओं को निहारने 
उनके जिस्म उघाड़ने को आतुर!!!
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