__________________
कई बार
निराश हो जाता हूँ
घर से निकलने से पहले
भीषण तपिश मे
कलेजा जैसे मुह को आ जाता है
पर बाहर आते ही
सड़क की दोनों तरफ
टंचवेग मे मुसकुराती
दिग्विजय टंचिकाओं का सम्मोहन
सम्हाल लेता है मुझे
और लगता है जैसे
मैं भी बना हूँ
बाहर सड़क के लिए,
इन टंचिकाओं के लिए...
पर अफसोस!
मैं दिग्विजय नहीं!
इसलिए खुद को गरियाता
तपिश के बावजूद
मैं नहीं रुकता सड़क किनारे
जहां दिग्गी संभावनाओं को तलाशते
युवाओं की भीड़ लगी रहती है
टंचिकाओं को निहारने
उनके जिस्म उघाड़ने को आतुर!!!
__________________________
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें