गुरुवार, 13 मार्च 2014

समलैंगिकता

इक देह की तड़प उसकी
उसकी रूह को तड़पती एक रूह
और उस तड़पते देह से दूर 
तीसरी तरफ एक रूह को तड़पती 
एक जिस्म

कुछ अनसुलझे चेहरे 
सुलझा रहे बहुत कुछ 

रूह और जिस्म के नाम का पहला अक्षर 
एक दूसरे की पहचान मे शामिल करते 
सबकी बेचैनी हासिल हाथ आए 
बिन शोर इक जिस्म 
कभी रूह और कभी मजबूरी 
ज़िंदगी और बेबसी के नाम पर 

उन्हे पसंद नहीं हिकारत
इसलिए जूझ रही हैं 
दुनिया से, खुद से, 
परिवार से 

कल्पना और उमंग मांग रही समर्थन 
प्रकृति के विरुद्ध इक फैसले पर 
वो नहीं चाहती जनना बच्चे 
पतियों से लड़ाई का भय शायद 
क्योंकि नहीं चाहती आत्महत्या
कथित तौर पर सिर्फ इसीलिए 
हाशिये पर खड़ा प्रेमी 

आक्रोश और कसैलापन 
समाज के बीच लेकिन जुदा
कस्बों के कुछ छुपे अंजान चेहरे 
इन्ही कस्बों से निकल कर पसर रही
अलहदा महानगर की संस्कृति 
इस संस्कृति मे उनकी पहचान 
एक अलग दुनिया महिलाओं की 
आप इसे समलैंगिकता कहते हैं न !

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