मंगलवार, 18 मार्च 2014

चूहा



पहाड़ की पीठ पर बैठ कर
वो बहुत दूर जाना चाहती थी
चूहे को एक शरारत सूझी जब
उसे खोदना पड़ा चप्पा चप्पा
गर्दो गुब्बार का लावा बह गया
अनंत आकाश

खुद रही थी जब पहाड़ की पीठ 
ध्वस्त हो रही थी ऊंचाई तब
कोहराम चूहे की शरारत पर
हाहाकार तीसरे नेत्र के खुलने से

अब वहाँ एक समतल मैदान था
और वो घोड़े की पीठ पर बैठी थी
शांत, नैराश्य विहीन चेहरा
दौड़ते घोड़े की पीठ पर एक ठहराव

वाकई आज बहुत दूर आ गई थी
चूहे से अब उसे कोई शिकायत नहीं
चूहा भी मुस्कुराकर चल दिया
किसी दूसरे पहाड़ पर बैठे
ऐसे ही किसी अंजान के पास
एक नई शरारत करने

क्योंकि दुनिया मे अब तक
वो सभी पहाड़ जो खुदे है,
चूहे की शरारत हैं !
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गुरुवार, 13 मार्च 2014

समलैंगिकता

इक देह की तड़प उसकी
उसकी रूह को तड़पती एक रूह
और उस तड़पते देह से दूर 
तीसरी तरफ एक रूह को तड़पती 
एक जिस्म

कुछ अनसुलझे चेहरे 
सुलझा रहे बहुत कुछ 

रूह और जिस्म के नाम का पहला अक्षर 
एक दूसरे की पहचान मे शामिल करते 
सबकी बेचैनी हासिल हाथ आए 
बिन शोर इक जिस्म 
कभी रूह और कभी मजबूरी 
ज़िंदगी और बेबसी के नाम पर 

उन्हे पसंद नहीं हिकारत
इसलिए जूझ रही हैं 
दुनिया से, खुद से, 
परिवार से 

कल्पना और उमंग मांग रही समर्थन 
प्रकृति के विरुद्ध इक फैसले पर 
वो नहीं चाहती जनना बच्चे 
पतियों से लड़ाई का भय शायद 
क्योंकि नहीं चाहती आत्महत्या
कथित तौर पर सिर्फ इसीलिए 
हाशिये पर खड़ा प्रेमी 

आक्रोश और कसैलापन 
समाज के बीच लेकिन जुदा
कस्बों के कुछ छुपे अंजान चेहरे 
इन्ही कस्बों से निकल कर पसर रही
अलहदा महानगर की संस्कृति 
इस संस्कृति मे उनकी पहचान 
एक अलग दुनिया महिलाओं की 
आप इसे समलैंगिकता कहते हैं न !

शनिवार, 8 मार्च 2014

कल्लू परछाई

जब मुझे नहीं पता चलता तब समाज बता देता है तू तो चोर है और तब मैं भागता हूँ ढूँढता हूँ वकील और दोस्त पुलिस जब कुछ लोग बता देते हैं मेरी किसी बीमारी के बारे मे तब मैं डाक्टरों को ढूँढता हूँ हर रोज जब पूछता हूँ भागता हूँ किसी के पीछे अपनी ही तलाश मे निकलता हूँ चेहरे व्यापार करते मिल जाते है 

भागा भागी मे 
कहाँ जिया खुद को 
बस झेलता रहा खुद को 
तलाशता रहा समस्याओं की जड़  

आज कल्लू से पूछा खुद के बारे मे वही कल्लू मेरी परछाईं... उसने बताया इंसान के विषय मे और तब लगा क्यों न भागूँ आज एक इंसान के पीछे ढूंढ लूँ खूद को 

मंगलवार, 4 मार्च 2014

घुसपैठिये


ठंढ मे कंपकपाती देह लिए 

रोटी की जुगाड़ मे निकलने को 

स्थूलकाय लंगड़ाती घिसटती 

हर दो कदम के बाद लौट आती 


अंजान भय घुसपैठियों का 

उसी सा दिखता राहगीर 

आज वो किसी को नहीं छोड़ेगी 

पर घुसपैठिया माँ से भी चौकस 

उसे पता है पेट की भूख 


माँ के दूर चले जाने के साथ ही 

घुसपैठिया वापस आता है 

हाथ मे है दूध की कटोरी 

शायद उसने छुप कर बचाया है 

माँ की डांट फटकार के बावजूद 

और उड़ेल देता है भरपूर प्यार 


हाँ लिंग परीक्षण करना नहीं भूलता 

मासूम घुसपैठिए को चाहिए 

एक अदद पिल्ला 

उसकी अपनी भाषा मे 

तुतिया ना तुत्ता 

(तुत्ता=कुत्ता)