मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

छिपी दो आँखें


कुछ की कुर्सी गई,
कुछ ने बेच डाला हांडी-बर्तन 
भोले मुख्यमंत्रियों को पगला दिया
सबकी कुंडली देखता है,
कहता है प्रधानमंत्री बनोगे
इस बार नहीं तो कभी नहीं
शिद्दत से उस पंडित को खोज रहा हूँ

भोले लोग या पागल सनकी
लोकतंत्र की खाली टंकी
मरने से पहले एक बार कुर्सी
मुख्यमंत्री से आगे प्रधानमंत्री
इस करतब से बेखबर जुगाड़ी
और तमाशा देखती छिपी आँखें
और संजय बन अखाड़े में खड़ा
सब कुछ आँखों देखी कहता पंडित

और इस तमाशे का एक पक्ष
पैसे फ़ेंक तमाशा देखने वाला
नहीं चाहता थके 'जोकर'
झूला चलता रहे अनवरत
मजमा लगा रहे,
सजती रहें दुकाने
बिकता रहे माल

झोली में धन ढोते ढोते उसकी
किसी ने बताया पीठ कुबड़ी हो गई
कोई कहता है इस धन से रोटी खरीद लाता है
कुछ तो उसका घर तक झाँक आये हैं
दारु की बोतल और अलमस्त नव यौवनाएं
सुना तो ये भी है कि सुरंगे हैं इधर कुछ
खुलती हैं अमेरिका और बारूदी गोद में

रविवार, 6 अप्रैल 2014

लोकतंत्र का एक पर्व


इसी दुनिया के एक कोने में
सुना है, 
कोई पर्व मना रहे हैं
कहते हैं लोकतंत्र है

लहू के धब्बों के बीच
चिथडो में पैदा और
आवारगी में पली जवानी को
एक बार फिर सींच देंगे
नमक मिले पानी से
नाम पसीने का होगा
और हलाल होगी
बदहाल युवा पीढ़ी
तभी तो लहलहाएगी
झूठ और फरेब की फसल

चलो अपना फर्ज निभाते हैं
एक बार फिर अपना मत
किसी गटर में डाल आते हैं
अभियक्ति की आजादी के नाम पर
ताकि अगली सुबह दुनिया कह सके
जीत हुई एक बार फिर
भारतीय लोकतंत्र की