शनिवार, 3 मई 2014

तुम और मैं

उम्र के कई पडाव
हर पडाव की एक उम्र
जैसे कि तुम और मैं
और हमारे बीच का सम्बन्ध

कुछ न होकर भी सब कुछ
उन संबंधो की एक उम्र
गुजरते वक्त के कंधे पर
लदा बेअसर सा कुछ बोझ
अब ये मुझे परेशान नहीं करता

एक पहेली

खून चूसती एक प्रजा
राजा फिर भी आगे-पीछे
न ही कोई मिथ्या मानो
नहीं कहो इसको सनक
ये एक ऐसी है व्यवस्था
राजा बनना चाहे प्रजा.
बोलो बोलो कौन राजा
और किसको कहते प्रजा???

काला जादू

काला जादू में अक्सर देखिये
मन्त्र पढता है जादूगर
सब कुछ झोंक कर
भर लेना चाहता है झोली
वही ढीली झोली
जिसे मंच पर वो उडेलता है
सूरज की गोद में निंदियाये लोगों के बीच

अट्टहास करता
'दुनिया कदमो तले होगी'
ऐसी ही कुछ हसरत लिए
वो पालता है एक सपना
और अचानक ही
डर जाता है जादूगर
अपने ही अट्टहास से फिर
और डरा देता है इस डर से
अपने सामने बैठी लोगों की भीड़ को

भीड़ डरना जानती है
उसे नहीं आता सवाल
इसलिए वो नहीं करती विद्रोह
इस डर से उपजी एक शून्यता
और यही हासिल जादूगर का

पता नहीं आपने कही देखा है या नहीं
लेकिन अक्सर, जहाँ सपने बिकते हैं
एक अदद रोटी और धोती के
उसी भीड़ के बीच पाए जाते हैं
काला जादू करने वाले जादूगर
जो अपने डर से ही
खरीद लेते हैं बहुत कुछ
और छोड़ जाते हैं फकीरों को
जिनके कटोरे भरे होते हैं डर से !

ब्रेकिंग

ब्रेकिंग सुनो
चुनाव में पतंग कटेगी
बाजार अब गुलजार होगा
चूल्हे चौकी की बाँट होगी
एक मेहनतकश सरकार होगी
राम सीता एक होंगे
रहीम का सत्कार होगा
कोठे फिर गुलजार होंगे
मुर्दों के शहर शहनाई होगी
दुनिया फिर भी गोल होगी
इस दुनिया की दहलीज होगी

परछाई


दो खड़े
दो आगे देखो
अगर मुड़े तो पीछे देखो
मिल गए, मिल चार हुए
इन चार के पीछे भी हैं
आगे देखो या फिर पीछे
बड़ी खूबी रखते ये खुद में
दिन में ये दीखते जैसे हों शेर
लाख करो पीछा ना छूटे
रात हुई तो दुम दबाया
जैसे भूत से पड़ गया पाला

मोहरा


मैं लाया गया था
तुम्हारी ज़िंदगी मे
ये सच है,
मैं मोहरा था
लेकिन तुम्हें तो पता था

चुपके से

तुम नाराज हो न मुझसे
तो चलो एक काम करते हैं
एक पत्थर तुम्हारे हाथ
एक नर्म दिल मेरे साथ
फेंक देते हैं दोनों दरिया मे
न तुम्हारे हाथ पत्थर होगा
न तुम कठोरता महसूसोंगी
और न मेरे पास दिल होगा
न मुझे परेशान करेगा कभी
फिर रहना तुम चैन से और
मुझे सोने देना हमेशा के लिए

अलविदा कहने का रिवाज नहीं
क्योंकि जाने वाले रोक लिए जाते हैं
इसलिए आज चुपके से चला जाऊंगा

गाँव की मिट्टी

तुम जो भी महसूसते हो
उसे मैं स्वीकार करती हूँ
तुम्हारे मोती जब टपकाते हैं
पीड़ा को बूंदों की शक्ल,
मैं तुम्हारी व्यथा को
और तुम्हारे जज़्बात को
अपने अंदर समेट लेती हूँ
और बिखेर देती हूँ
एक सौंधी महक
जिसे लेकर एक बार फिर
तुम उड़ जाते हो सुदूर

जब तुम चले जाते हो
बहुत दूर रोटी की फिक्र मे
तब अकेली होकर भी
मैं नहीं रोती कभी
क्या पता हवाएँ
पहुंचा दें  
तुम तक मेरी आंखो की नमी
और फिर मैं कभी न पा सकूँ
तुम्हारे आंसुओं की शक्ल
तुम्हारा कोमल स्पर्श

डरती हूँ इसी एक कारण से
वरना अगर तुम दो भरोसा
तो मैं भी जी भर रो लूँ
तुम्हारे साथ लिपटकर भीगा दूँ
तुम्हें भी मैं अपनी नमी से
और चढ़ा दूँ अपना लेप
तुम्हारे तन-मन पर

हाँ,

लिपटना चाहती है तुमसे
तुम्हारे गाँव की मिट्टी
तो इस बार जब आओ
जरा फुर्सत से आओ

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

छिपी दो आँखें


कुछ की कुर्सी गई,
कुछ ने बेच डाला हांडी-बर्तन 
भोले मुख्यमंत्रियों को पगला दिया
सबकी कुंडली देखता है,
कहता है प्रधानमंत्री बनोगे
इस बार नहीं तो कभी नहीं
शिद्दत से उस पंडित को खोज रहा हूँ

भोले लोग या पागल सनकी
लोकतंत्र की खाली टंकी
मरने से पहले एक बार कुर्सी
मुख्यमंत्री से आगे प्रधानमंत्री
इस करतब से बेखबर जुगाड़ी
और तमाशा देखती छिपी आँखें
और संजय बन अखाड़े में खड़ा
सब कुछ आँखों देखी कहता पंडित

और इस तमाशे का एक पक्ष
पैसे फ़ेंक तमाशा देखने वाला
नहीं चाहता थके 'जोकर'
झूला चलता रहे अनवरत
मजमा लगा रहे,
सजती रहें दुकाने
बिकता रहे माल

झोली में धन ढोते ढोते उसकी
किसी ने बताया पीठ कुबड़ी हो गई
कोई कहता है इस धन से रोटी खरीद लाता है
कुछ तो उसका घर तक झाँक आये हैं
दारु की बोतल और अलमस्त नव यौवनाएं
सुना तो ये भी है कि सुरंगे हैं इधर कुछ
खुलती हैं अमेरिका और बारूदी गोद में

रविवार, 6 अप्रैल 2014

लोकतंत्र का एक पर्व


इसी दुनिया के एक कोने में
सुना है, 
कोई पर्व मना रहे हैं
कहते हैं लोकतंत्र है

लहू के धब्बों के बीच
चिथडो में पैदा और
आवारगी में पली जवानी को
एक बार फिर सींच देंगे
नमक मिले पानी से
नाम पसीने का होगा
और हलाल होगी
बदहाल युवा पीढ़ी
तभी तो लहलहाएगी
झूठ और फरेब की फसल

चलो अपना फर्ज निभाते हैं
एक बार फिर अपना मत
किसी गटर में डाल आते हैं
अभियक्ति की आजादी के नाम पर
ताकि अगली सुबह दुनिया कह सके
जीत हुई एक बार फिर
भारतीय लोकतंत्र की

मंगलवार, 18 मार्च 2014

चूहा



पहाड़ की पीठ पर बैठ कर
वो बहुत दूर जाना चाहती थी
चूहे को एक शरारत सूझी जब
उसे खोदना पड़ा चप्पा चप्पा
गर्दो गुब्बार का लावा बह गया
अनंत आकाश

खुद रही थी जब पहाड़ की पीठ 
ध्वस्त हो रही थी ऊंचाई तब
कोहराम चूहे की शरारत पर
हाहाकार तीसरे नेत्र के खुलने से

अब वहाँ एक समतल मैदान था
और वो घोड़े की पीठ पर बैठी थी
शांत, नैराश्य विहीन चेहरा
दौड़ते घोड़े की पीठ पर एक ठहराव

वाकई आज बहुत दूर आ गई थी
चूहे से अब उसे कोई शिकायत नहीं
चूहा भी मुस्कुराकर चल दिया
किसी दूसरे पहाड़ पर बैठे
ऐसे ही किसी अंजान के पास
एक नई शरारत करने

क्योंकि दुनिया मे अब तक
वो सभी पहाड़ जो खुदे है,
चूहे की शरारत हैं !
................................

गुरुवार, 13 मार्च 2014

समलैंगिकता

इक देह की तड़प उसकी
उसकी रूह को तड़पती एक रूह
और उस तड़पते देह से दूर 
तीसरी तरफ एक रूह को तड़पती 
एक जिस्म

कुछ अनसुलझे चेहरे 
सुलझा रहे बहुत कुछ 

रूह और जिस्म के नाम का पहला अक्षर 
एक दूसरे की पहचान मे शामिल करते 
सबकी बेचैनी हासिल हाथ आए 
बिन शोर इक जिस्म 
कभी रूह और कभी मजबूरी 
ज़िंदगी और बेबसी के नाम पर 

उन्हे पसंद नहीं हिकारत
इसलिए जूझ रही हैं 
दुनिया से, खुद से, 
परिवार से 

कल्पना और उमंग मांग रही समर्थन 
प्रकृति के विरुद्ध इक फैसले पर 
वो नहीं चाहती जनना बच्चे 
पतियों से लड़ाई का भय शायद 
क्योंकि नहीं चाहती आत्महत्या
कथित तौर पर सिर्फ इसीलिए 
हाशिये पर खड़ा प्रेमी 

आक्रोश और कसैलापन 
समाज के बीच लेकिन जुदा
कस्बों के कुछ छुपे अंजान चेहरे 
इन्ही कस्बों से निकल कर पसर रही
अलहदा महानगर की संस्कृति 
इस संस्कृति मे उनकी पहचान 
एक अलग दुनिया महिलाओं की 
आप इसे समलैंगिकता कहते हैं न !

शनिवार, 8 मार्च 2014

कल्लू परछाई

जब मुझे नहीं पता चलता तब समाज बता देता है तू तो चोर है और तब मैं भागता हूँ ढूँढता हूँ वकील और दोस्त पुलिस जब कुछ लोग बता देते हैं मेरी किसी बीमारी के बारे मे तब मैं डाक्टरों को ढूँढता हूँ हर रोज जब पूछता हूँ भागता हूँ किसी के पीछे अपनी ही तलाश मे निकलता हूँ चेहरे व्यापार करते मिल जाते है 

भागा भागी मे 
कहाँ जिया खुद को 
बस झेलता रहा खुद को 
तलाशता रहा समस्याओं की जड़  

आज कल्लू से पूछा खुद के बारे मे वही कल्लू मेरी परछाईं... उसने बताया इंसान के विषय मे और तब लगा क्यों न भागूँ आज एक इंसान के पीछे ढूंढ लूँ खूद को 

मंगलवार, 4 मार्च 2014

घुसपैठिये


ठंढ मे कंपकपाती देह लिए 

रोटी की जुगाड़ मे निकलने को 

स्थूलकाय लंगड़ाती घिसटती 

हर दो कदम के बाद लौट आती 


अंजान भय घुसपैठियों का 

उसी सा दिखता राहगीर 

आज वो किसी को नहीं छोड़ेगी 

पर घुसपैठिया माँ से भी चौकस 

उसे पता है पेट की भूख 


माँ के दूर चले जाने के साथ ही 

घुसपैठिया वापस आता है 

हाथ मे है दूध की कटोरी 

शायद उसने छुप कर बचाया है 

माँ की डांट फटकार के बावजूद 

और उड़ेल देता है भरपूर प्यार 


हाँ लिंग परीक्षण करना नहीं भूलता 

मासूम घुसपैठिए को चाहिए 

एक अदद पिल्ला 

उसकी अपनी भाषा मे 

तुतिया ना तुत्ता 

(तुत्ता=कुत्ता)

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

प्यार दिवस पर


मड़वा अब नहीं रहा 

फिर भी शादियाँ होंगी 

गुलाब भी खिलेंगे 

बिकने को अनवरत 

साँसे जुटती रहेंगी 

नज़रों की अठखेलियों के बीच 

कसरती भुजाओं और मखमली आगोश में 

शोर चाहे कितना भी कर ले दुनिया 

दुनिया को अंततः पहचान देंगी 

उग आई नयी फुनगियाँ 

इन क्यारिओं में नव-अंकुरण को देखो 

बिना खाद, बिना पानी 

सिर्फ नमी से ही 

उग आयी है जैसे 

माली की बेरुखी से पसीज कर 

क्या पता कोई राहगीर ही 

मेहरबान हो जाये 

उन्हें भी शायद पता है 

जन्म से पहले ही 

की दुनिया नहीं सिमट जाती 

एक रस्म के छुट जाने से...

_____________________

जनपथ के जून 2013 अंक मे प्रकाशित 


सांसदी



कह देता हूँ... सुधर जाओ 
वरना कहीं के नहीं रहोगे 
फिर घुमना सांसदी लेकर 
आज मैंने अपने बेटे को चेताया 
और पकड़ा दी खद्दर की टोपी 
कुर्ता पाजामा और एक झोला 

पत्नी हतप्रभ थीं, 
पूछा, आज क्या कह दिया 
वातावरण मे भारीपन कैसा 
सहमकर न कुछ खाया न पिया 
लाल आज घर मे ही दुबका रहा 

वाकई सूरज तेज चमक रहा था 
घर का भूगोल भी बदला सा दिखा 
आज पहली बार गायब थीं 
मेरी आलमारी से किताबें 
मैंने देखा मुस्कुरा रही थीं 
बेटे की टेबल पर 

मुझे खुशी है
सांसदों ने आज दे दिया 
वाकई मुझे वो उपहार 
जिसके बूते मैं संवार सकूँगा 
अपने बेटे का भविष्य
और फिर एक दिन बदल जाएगा 
पूरे देश का मिजाज 

शुक्रिया 13 फरवरी 2014 की भारतीय संसद
आज वाकई तुमने कमाल कर दिया 
शाबाश

पटना



कहानी सुनो
एक कवि की


उसे लगता है
ये शहर है पटना

उसकी हिदायत 
इसमे नहीं सटना

पर आज जो किया
इस पटना ने
बम और बारूद पर भी
जो नहीं फिसली,
नहीं भागी बेतहाशा
खून के लोथड़ों से सनी
जख्मी पीठ लिए


मुझे हैरत नहीं
कि वो फिर लिखे
एक कविता
और बदल ले
अपनी सोच
और लिख दे कहीं
छुपकर ही सही



ये शहर है पटना 
इसमे सटना

मेरे सामने

सुनो,

एक दिन जब मैं

बहुत दूर चला जाऊंगा

कि पास रह कर भी तुमसे

अपरिचित सा हो जाऊंगा

तुम्हारी बातें और शरारतें

और यादों के ढेरो पुलिंदे

समय की धूल के गर्त से ढकी

अपने अस्तित्व को बचाती रहेगी

ऐसा मत सोचना

मैं

तुम्हारी यादों को

समय के ताक पर रख

चैन की नींद सो जाऊंगा

और तब मेरी यादें

तुमहरी अस्तित्व के ऊपर

कुछ इस तरह फैल जाएगी

जैसे बरसाती मौसम मे

गंगा फैल जाती है

श्रद्धालुओं के दरवाजे तक

इसीलिए

जब मैं कोशिश करता हूँ

और तुम काट दिया करती हो

हर रोज मेरे फोन

और सहारा लेती हो

अपनी बात रखने के लिए

अपरिचित लोगों का

तो मैं एक नई ऊर्जा के साथ

तुम्हें भविष्य के लिए

तैयार करने मे जुट जाता हूँ

आत्मसम्मान की कीमत पर

ताकि कहीं कोई सिरफिरा

इस बाढ़ से निकालने की कीमत

तुम्हारी आत्मा से ज्यादा न मांग ले

तुम्हें सीखना होगा खुद ही

जज़्बातों की बाढ़ से निपटना

और बनना होगा मजबूत

मेरे सामने ही.

लापरवाह


मांस का कोई लोथड़ा नहीं 
उसके तन मे सिर्फ हाड़ था 
साहब वो दिखी थी वीराने मे 
लजाते उधड़े तन से लापरवाह 
गर्दन तक लपलपाई लहरों के बीच 
अमराई मे तोड़ती टहनियाँ 

भीगी आँचल मे समेटती जिंदगी 
गंगा के सैलाब मे जद्दोजहद 
जीवन जीने की एक जिद्द उसकी 

पानी के आँचल तले पानी-पानी 
उसकी अमराई मे जैसे दखल मेरा
तीखी नजरों से देखती-गुर्राती 
उसे अपने उघड़े तन की नहीं
सुखी टहनियों की फिक्र थी
यकीन करिए वो उधर लपकी थी
अपने एक सुकून भरे कल के लिए 
क्योंकि उदास था चूल्हा हफ्ते से 

उसका साथी मगन तोड़ने मे, 
जिद्दी टहनियों को झुकाकर 
वो नहीं दौड़ा था हमारी तरफ
लेकर अपनी लाठी, जाने क्यों 
जबकि उसे नहीं पता था 
कि हमारी नजर अनायास पड़ी थी 
ऊपर से नीचे तक भीग चुकी 
उस महिला की तरफ 
आखिर ये सवाल था 
उसकी अस्मिता का?

शायद उपहास उड़ाया था अबोध ने 
अट्टालिकाओं से झाँकती 
इठलाती मदहोशियां का 
जहां राजनीति है देह की 
जद्दोजहद नहीं जीवन की 

राहत शिविर

भीड़ से बच कर वो कनात के पीछे है
उसके सामने आज भर पेट भोजन है!

सतर्क निगाहें चहुओर पसरी हैं
दबे पाँव पहुंचे कुछ लोग हैरान है!

मुखिया जी द्रवित हैं दलित की भूख से
इसलिए नहीं बताते की कुत्ते का जूठन है!

शिविरों मे राहत है, घुटना भर ही पानी है 
महादलित सड़कों पर भूख से बेचैन हैं!

ये बिहार के भोजपुर का सरइयाँ बाजार है 
यहाँ भी राहत शिविरो के सच का दर्शन है! 

देह के लिए देह की दी जारही आहुती है
भूख से यहाँ भी एक दुनिया विचलित है!

बिहार एक बार फिर बाढ़ की चपेट मे है
सभी अधिकारी नोट गिनने मे मगन हैं!
  Kajal Lall, Navnit Nirav, Gautam Giriyage,Jitendra Kumar, Sheshnath Pande

राहत शिविर

भीड़ से बच कर वो कनात के पीछे है
उसके सामने आज भर पेट भोजन है!

सतर्क निगाहें चहुओर पसरी हैं
दबे पाँव पहुंचे कुछ लोग हैरान है!

मुखिया जी द्रवित हैं दलित की भूख से
इसलिए नहीं बताते की कुत्ते का जूठन है!

शिविरों मे राहत है, घुटना भर ही पानी है 
महादलित सड़कों पर भूख से बेचैन हैं!

ये बिहार के भोजपुर का सरइयाँ बाजार है 
यहाँ भी राहत शिविरो के सच का दर्शन है! 

देह के लिए देह की दी जारही आहुती है
भूख से यहाँ भी एक दुनिया विचलित है!

बिहार एक बार फिर बाढ़ की चपेट मे है
सभी अधिकारी नोट गिनने मे मगन हैं!
 — with Kajal Lall, Navnit Nirav, Gautam Giriyage,Jitendra Kumar, Sheshnath Pande

डर



डरता हूँ 
राजनीति से 
तुम्हारी विवशता 
और उसकी चपलता से 

कुछ भी नहीं छुपा 
जो मेरे साथ है 
मेरे अंदर ज़िंदा 
लेकिन क्या देख पाते होंगे 
वो सभी जो मुझे जानते हैं 

धर्म संकट मे हूँ 
उसकी मासूमियत 
तार-तार कर रही 
मेरे वजूद को 
जो जुड़ चुका 
मेरे वर्तमान से 

तुम्हारा अतीत 
एक परछाई की शक्ल 
जो रहता है मेरे भीतर 
अमूर्त रूप मे 
अब डरा रहा है.

बाथे पर कुछ कहना है


बाथे नरसंहार पर आज क्यों हो हल्ला है
उन्हे तो जीवित छोड़ देना भी बड़ी सजा है!

तुम्हें तो मिल ही गई दो गज जमीन
पर कुछ मुर्दों को बिन कफन जीना है!

दलितों ने गंवाई थी अपनी मासूम जान केवल
उनके दस्ते ने अपने घरों मे कफन फैलाया है!

तुम शान से मर गए, शहीद कहलाने के लिए
उनके घरों की मासूमियत बिन कफन मुरदा हैं!

दस्ते का दस्तूर खूनी होली कत्ल और दहशत
खुद की बेटियों के अधोअंग भी जख्मी किए हैं!.......मुकेश


ज़िम्मेवार






यहाँ नीरवता है, 
एक शव जल रहा है 
हाँ तुम्हारा शव जल रहा है 
और उसे ताप रहा हूँ मैं 
ढंढ मे गर्मी की खातिर 

सीत मे लिपटी दूब की तरह 
हर रोज नए अरमान लिए तुम 
और तुम्हारे जज़्बात से बेखबर 
मुझे सुबह की ताजगी चाहिए 

शाम हुयी,
लौट रहे पंक्षी घरों को 
और पिंजड़े मे कैद तुम 
बाट जोहती बहेलिये का 

सबकुछ छुपा लेती अपने भीतर 
नहीं बहने देती लावा बनकर कभी 
क्या तुम भी ज़िम्मेवार नहीं 
अपनी पीड़ा का
 — with मुकेश सिन्हा and Sunil Srivastava.

शुभकामना



ये तय हो गया, 
जबकि चिट्ठियाँ नहीं 
और न ही कोई डाकिया ऐसा 
जो खटखटा सके तुम्हारा किवाड़,
बिना पूछे किसी से ताकि 
एक दूरी तुमहार-मेरे बीच बनी रहे, 
परिचितों की दृष्टि मे निरंतर,
और मैं लिख दूँ कागजों मे 
अपनी उत्तेजनाएं, आशीर्वाद और लाड़,
मुझे स्वीकार करनी होगी दूरियाँ 


जैसा कि होता आया है अक्सर 
अपनी बधाई और शुभकामनायें
मैं छोड़ देती किसी गुमनाम चौराहा 
जिसमे शब्द तो नहीं होते 
पर जिसे तुम सहज स्वीकारते 

 
आज, तुम्हारे दुबारा पिता बन जाने पर 
मैं दे रही हूँ एक बार फिर 
वैसी ही बधाई और शुभकामनायें 

 
स्वीकार हो न हो तुम्हें, 
उस चौराहे कभी गुजरो न गुजरो, 
मैंने मान लिया इसे स्वीकृत 
क्योकि अभी अभी मेरी आँख फड़की 
और दिल जो दर-असल तुम्हारा ही है 
धडक कर शोर कर रहा है
कि तुमने दुलारा है नवजात को
उसकी माँ की गोद से लेकर

दिग्गी टंचिकायेँ


__________________
कई बार 
निराश हो जाता हूँ 
घर से निकलने से पहले
भीषण तपिश मे 
कलेजा जैसे मुह को आ जाता है
पर बाहर आते ही
सड़क की दोनों तरफ 
टंचवेग मे मुसकुराती 
दिग्विजय टंचिकाओं का सम्मोहन 
सम्हाल लेता है मुझे 
और लगता है जैसे 
मैं भी बना हूँ 
बाहर सड़क के लिए,
इन टंचिकाओं के लिए...
पर अफसोस!
मैं दिग्विजय नहीं!
इसलिए खुद को गरियाता 
तपिश के बावजूद 
मैं नहीं रुकता सड़क किनारे 
जहां दिग्गी संभावनाओं को तलाशते 
युवाओं की भीड़ लगी रहती है 
टंचिकाओं को निहारने 
उनके जिस्म उघाड़ने को आतुर!!!
__________________________

कहावत



जैसे कहावत है 
'बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद' 
'कुत्ते की दूम कभी सीधी नहीं हो सकती' 
उसी तरह एक नया वाक्य 
'तुम क्या जानो सीधी पूंछ का सुख' 
कभी देश के नेताओं पर आजमाना 
और यदि सटीक बैठ जाए तो इसे 
एक कहावत मान लेना
.....................................
मुकेश

दो अश्क


  • साँसे चलती होंगी,
    मखमली उरोजों की आभासी मादकता
    उसके कंपन से उपजी तुम्हारी उत्तेजना

    इन्हे देख कर एहसास होता होगा
    एक साबूत वजूद के जीत लेने जैसा
    पर जिस जिस्म को कुरेदते रहे अबतक
    एक दिन उसकी आत्मा तलाशना
    या फिर अपनी रूह की गहराई तक उतरना

    और जो दिख जाए श्मशान मे
    उस चिता पर दो अश्क बहा देना