मड़वा अब नहीं रहा
फिर भी शादियाँ होंगी
गुलाब भी खिलेंगे
बिकने को अनवरत
साँसे जुटती रहेंगी
नज़रों की अठखेलियों के बीच
कसरती भुजाओं और मखमली आगोश में
शोर चाहे कितना भी कर ले दुनिया
दुनिया को अंततः पहचान देंगी
उग आई नयी फुनगियाँ
इन क्यारिओं में नव-अंकुरण को देखो
बिना खाद, बिना पानी
सिर्फ नमी से ही
उग आयी है जैसे
माली की बेरुखी से पसीज कर
क्या पता कोई राहगीर ही
मेहरबान हो जाये
उन्हें भी शायद पता है
जन्म से पहले ही
की दुनिया नहीं सिमट जाती
एक रस्म के छुट जाने से...
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जनपथ के जून 2013 अंक मे प्रकाशित
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