मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

प्यार दिवस पर


मड़वा अब नहीं रहा 

फिर भी शादियाँ होंगी 

गुलाब भी खिलेंगे 

बिकने को अनवरत 

साँसे जुटती रहेंगी 

नज़रों की अठखेलियों के बीच 

कसरती भुजाओं और मखमली आगोश में 

शोर चाहे कितना भी कर ले दुनिया 

दुनिया को अंततः पहचान देंगी 

उग आई नयी फुनगियाँ 

इन क्यारिओं में नव-अंकुरण को देखो 

बिना खाद, बिना पानी 

सिर्फ नमी से ही 

उग आयी है जैसे 

माली की बेरुखी से पसीज कर 

क्या पता कोई राहगीर ही 

मेहरबान हो जाये 

उन्हें भी शायद पता है 

जन्म से पहले ही 

की दुनिया नहीं सिमट जाती 

एक रस्म के छुट जाने से...

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जनपथ के जून 2013 अंक मे प्रकाशित 


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