मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

लापरवाह


मांस का कोई लोथड़ा नहीं 
उसके तन मे सिर्फ हाड़ था 
साहब वो दिखी थी वीराने मे 
लजाते उधड़े तन से लापरवाह 
गर्दन तक लपलपाई लहरों के बीच 
अमराई मे तोड़ती टहनियाँ 

भीगी आँचल मे समेटती जिंदगी 
गंगा के सैलाब मे जद्दोजहद 
जीवन जीने की एक जिद्द उसकी 

पानी के आँचल तले पानी-पानी 
उसकी अमराई मे जैसे दखल मेरा
तीखी नजरों से देखती-गुर्राती 
उसे अपने उघड़े तन की नहीं
सुखी टहनियों की फिक्र थी
यकीन करिए वो उधर लपकी थी
अपने एक सुकून भरे कल के लिए 
क्योंकि उदास था चूल्हा हफ्ते से 

उसका साथी मगन तोड़ने मे, 
जिद्दी टहनियों को झुकाकर 
वो नहीं दौड़ा था हमारी तरफ
लेकर अपनी लाठी, जाने क्यों 
जबकि उसे नहीं पता था 
कि हमारी नजर अनायास पड़ी थी 
ऊपर से नीचे तक भीग चुकी 
उस महिला की तरफ 
आखिर ये सवाल था 
उसकी अस्मिता का?

शायद उपहास उड़ाया था अबोध ने 
अट्टालिकाओं से झाँकती 
इठलाती मदहोशियां का 
जहां राजनीति है देह की 
जद्दोजहद नहीं जीवन की 

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