मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

अंतिम चीख से पहले


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रात की तनहाइयाँ धिक्कारती हैं 
जब मैं तुमसे या खुद से पूछता हूँ 
तुम्हारे हालत और खयालात के सबब 
अक्सर तड़पकर बैठ जाता हूँ 
कोसों दूर से आ रही वो चीख 
हर रात मुझे जगा देती है 
तुम्हारी जज़्ब होती साँसे 
और सान्निध्य मे भी अकेलापन 
उभर आते हैं सवाल बनकर 
और मैं खुद बनकर रह जाता हूँ 
अनसुलझा सा एक सवाल 
मैं तौलता हूँ और पाता हूँ खुद को 
तुम्हारी परिस्थितियों के विपरीत 
इसलिए दूर चला जाना चाहता हूँ 
दूर बहुत दूर तुमसे 
क्योकि मुझे दर है खुद से 
कहीं मेरी हीं चीख न निकल जाए 
तुम्हारी दफन होती चीख़ों को सुनकर 
क्यों चीखती हो मेरी तरफ मुड़कर 
कभी फुर्सत से आओ और देखो 
पहरे बिठाये गए हैं 
कुओं और मीनार पर 
बंद कर दिये गए हैं सारे गड्ढे 
तोड़ दी गई नदी वाली सड़क 
और उतार लिए गए हैं पंखे छतों से 
दुनिया डर रही है मुझे देख कर 
कि कहीं ढूंढ न लूँ मैं कब्र अपनी 
तुम्हारी अंतिम चीख से पहले 
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जनपथ के जून/2013 अंक मे प्रकाशित

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