मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

मेरी माँ


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उनींदी सी सुबह मेरी 
उसकी जैसे दुपहरी घनी 
खनखनाहट बर्तन और चूडियो की 
तोड़ती भ्रम रात की गहराई का 
सन्नाटे को चीरती वो मधुर झंकार 
होता मिलन मेरे इष्ट से 
चुहानी के अन्दर झांकते ही 

विस्मित करती मुझे 
ठिठुरती सर्दी या बरसात में 
या फिर भीषण गर्मी में 
चूल्हे की तपिश झेलती 
घर का कलह समेटती 
वो हाड मांस का एक पुतला 
खिलौना की शक्ल इस दुनिया में 
औरत का एक स्वरुप 
पर मेरे लिए मेरी इष्ट 
मेरी माँ 
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