शनिवार, 3 मई 2014

तुम और मैं

उम्र के कई पडाव
हर पडाव की एक उम्र
जैसे कि तुम और मैं
और हमारे बीच का सम्बन्ध

कुछ न होकर भी सब कुछ
उन संबंधो की एक उम्र
गुजरते वक्त के कंधे पर
लदा बेअसर सा कुछ बोझ
अब ये मुझे परेशान नहीं करता

एक पहेली

खून चूसती एक प्रजा
राजा फिर भी आगे-पीछे
न ही कोई मिथ्या मानो
नहीं कहो इसको सनक
ये एक ऐसी है व्यवस्था
राजा बनना चाहे प्रजा.
बोलो बोलो कौन राजा
और किसको कहते प्रजा???

काला जादू

काला जादू में अक्सर देखिये
मन्त्र पढता है जादूगर
सब कुछ झोंक कर
भर लेना चाहता है झोली
वही ढीली झोली
जिसे मंच पर वो उडेलता है
सूरज की गोद में निंदियाये लोगों के बीच

अट्टहास करता
'दुनिया कदमो तले होगी'
ऐसी ही कुछ हसरत लिए
वो पालता है एक सपना
और अचानक ही
डर जाता है जादूगर
अपने ही अट्टहास से फिर
और डरा देता है इस डर से
अपने सामने बैठी लोगों की भीड़ को

भीड़ डरना जानती है
उसे नहीं आता सवाल
इसलिए वो नहीं करती विद्रोह
इस डर से उपजी एक शून्यता
और यही हासिल जादूगर का

पता नहीं आपने कही देखा है या नहीं
लेकिन अक्सर, जहाँ सपने बिकते हैं
एक अदद रोटी और धोती के
उसी भीड़ के बीच पाए जाते हैं
काला जादू करने वाले जादूगर
जो अपने डर से ही
खरीद लेते हैं बहुत कुछ
और छोड़ जाते हैं फकीरों को
जिनके कटोरे भरे होते हैं डर से !

ब्रेकिंग

ब्रेकिंग सुनो
चुनाव में पतंग कटेगी
बाजार अब गुलजार होगा
चूल्हे चौकी की बाँट होगी
एक मेहनतकश सरकार होगी
राम सीता एक होंगे
रहीम का सत्कार होगा
कोठे फिर गुलजार होंगे
मुर्दों के शहर शहनाई होगी
दुनिया फिर भी गोल होगी
इस दुनिया की दहलीज होगी

परछाई


दो खड़े
दो आगे देखो
अगर मुड़े तो पीछे देखो
मिल गए, मिल चार हुए
इन चार के पीछे भी हैं
आगे देखो या फिर पीछे
बड़ी खूबी रखते ये खुद में
दिन में ये दीखते जैसे हों शेर
लाख करो पीछा ना छूटे
रात हुई तो दुम दबाया
जैसे भूत से पड़ गया पाला

मोहरा


मैं लाया गया था
तुम्हारी ज़िंदगी मे
ये सच है,
मैं मोहरा था
लेकिन तुम्हें तो पता था

चुपके से

तुम नाराज हो न मुझसे
तो चलो एक काम करते हैं
एक पत्थर तुम्हारे हाथ
एक नर्म दिल मेरे साथ
फेंक देते हैं दोनों दरिया मे
न तुम्हारे हाथ पत्थर होगा
न तुम कठोरता महसूसोंगी
और न मेरे पास दिल होगा
न मुझे परेशान करेगा कभी
फिर रहना तुम चैन से और
मुझे सोने देना हमेशा के लिए

अलविदा कहने का रिवाज नहीं
क्योंकि जाने वाले रोक लिए जाते हैं
इसलिए आज चुपके से चला जाऊंगा

गाँव की मिट्टी

तुम जो भी महसूसते हो
उसे मैं स्वीकार करती हूँ
तुम्हारे मोती जब टपकाते हैं
पीड़ा को बूंदों की शक्ल,
मैं तुम्हारी व्यथा को
और तुम्हारे जज़्बात को
अपने अंदर समेट लेती हूँ
और बिखेर देती हूँ
एक सौंधी महक
जिसे लेकर एक बार फिर
तुम उड़ जाते हो सुदूर

जब तुम चले जाते हो
बहुत दूर रोटी की फिक्र मे
तब अकेली होकर भी
मैं नहीं रोती कभी
क्या पता हवाएँ
पहुंचा दें  
तुम तक मेरी आंखो की नमी
और फिर मैं कभी न पा सकूँ
तुम्हारे आंसुओं की शक्ल
तुम्हारा कोमल स्पर्श

डरती हूँ इसी एक कारण से
वरना अगर तुम दो भरोसा
तो मैं भी जी भर रो लूँ
तुम्हारे साथ लिपटकर भीगा दूँ
तुम्हें भी मैं अपनी नमी से
और चढ़ा दूँ अपना लेप
तुम्हारे तन-मन पर

हाँ,

लिपटना चाहती है तुमसे
तुम्हारे गाँव की मिट्टी
तो इस बार जब आओ
जरा फुर्सत से आओ