मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

प्यार दिवस पर


मड़वा अब नहीं रहा 

फिर भी शादियाँ होंगी 

गुलाब भी खिलेंगे 

बिकने को अनवरत 

साँसे जुटती रहेंगी 

नज़रों की अठखेलियों के बीच 

कसरती भुजाओं और मखमली आगोश में 

शोर चाहे कितना भी कर ले दुनिया 

दुनिया को अंततः पहचान देंगी 

उग आई नयी फुनगियाँ 

इन क्यारिओं में नव-अंकुरण को देखो 

बिना खाद, बिना पानी 

सिर्फ नमी से ही 

उग आयी है जैसे 

माली की बेरुखी से पसीज कर 

क्या पता कोई राहगीर ही 

मेहरबान हो जाये 

उन्हें भी शायद पता है 

जन्म से पहले ही 

की दुनिया नहीं सिमट जाती 

एक रस्म के छुट जाने से...

_____________________

जनपथ के जून 2013 अंक मे प्रकाशित 


सांसदी



कह देता हूँ... सुधर जाओ 
वरना कहीं के नहीं रहोगे 
फिर घुमना सांसदी लेकर 
आज मैंने अपने बेटे को चेताया 
और पकड़ा दी खद्दर की टोपी 
कुर्ता पाजामा और एक झोला 

पत्नी हतप्रभ थीं, 
पूछा, आज क्या कह दिया 
वातावरण मे भारीपन कैसा 
सहमकर न कुछ खाया न पिया 
लाल आज घर मे ही दुबका रहा 

वाकई सूरज तेज चमक रहा था 
घर का भूगोल भी बदला सा दिखा 
आज पहली बार गायब थीं 
मेरी आलमारी से किताबें 
मैंने देखा मुस्कुरा रही थीं 
बेटे की टेबल पर 

मुझे खुशी है
सांसदों ने आज दे दिया 
वाकई मुझे वो उपहार 
जिसके बूते मैं संवार सकूँगा 
अपने बेटे का भविष्य
और फिर एक दिन बदल जाएगा 
पूरे देश का मिजाज 

शुक्रिया 13 फरवरी 2014 की भारतीय संसद
आज वाकई तुमने कमाल कर दिया 
शाबाश

पटना



कहानी सुनो
एक कवि की


उसे लगता है
ये शहर है पटना

उसकी हिदायत 
इसमे नहीं सटना

पर आज जो किया
इस पटना ने
बम और बारूद पर भी
जो नहीं फिसली,
नहीं भागी बेतहाशा
खून के लोथड़ों से सनी
जख्मी पीठ लिए


मुझे हैरत नहीं
कि वो फिर लिखे
एक कविता
और बदल ले
अपनी सोच
और लिख दे कहीं
छुपकर ही सही



ये शहर है पटना 
इसमे सटना

मेरे सामने

सुनो,

एक दिन जब मैं

बहुत दूर चला जाऊंगा

कि पास रह कर भी तुमसे

अपरिचित सा हो जाऊंगा

तुम्हारी बातें और शरारतें

और यादों के ढेरो पुलिंदे

समय की धूल के गर्त से ढकी

अपने अस्तित्व को बचाती रहेगी

ऐसा मत सोचना

मैं

तुम्हारी यादों को

समय के ताक पर रख

चैन की नींद सो जाऊंगा

और तब मेरी यादें

तुमहरी अस्तित्व के ऊपर

कुछ इस तरह फैल जाएगी

जैसे बरसाती मौसम मे

गंगा फैल जाती है

श्रद्धालुओं के दरवाजे तक

इसीलिए

जब मैं कोशिश करता हूँ

और तुम काट दिया करती हो

हर रोज मेरे फोन

और सहारा लेती हो

अपनी बात रखने के लिए

अपरिचित लोगों का

तो मैं एक नई ऊर्जा के साथ

तुम्हें भविष्य के लिए

तैयार करने मे जुट जाता हूँ

आत्मसम्मान की कीमत पर

ताकि कहीं कोई सिरफिरा

इस बाढ़ से निकालने की कीमत

तुम्हारी आत्मा से ज्यादा न मांग ले

तुम्हें सीखना होगा खुद ही

जज़्बातों की बाढ़ से निपटना

और बनना होगा मजबूत

मेरे सामने ही.

लापरवाह


मांस का कोई लोथड़ा नहीं 
उसके तन मे सिर्फ हाड़ था 
साहब वो दिखी थी वीराने मे 
लजाते उधड़े तन से लापरवाह 
गर्दन तक लपलपाई लहरों के बीच 
अमराई मे तोड़ती टहनियाँ 

भीगी आँचल मे समेटती जिंदगी 
गंगा के सैलाब मे जद्दोजहद 
जीवन जीने की एक जिद्द उसकी 

पानी के आँचल तले पानी-पानी 
उसकी अमराई मे जैसे दखल मेरा
तीखी नजरों से देखती-गुर्राती 
उसे अपने उघड़े तन की नहीं
सुखी टहनियों की फिक्र थी
यकीन करिए वो उधर लपकी थी
अपने एक सुकून भरे कल के लिए 
क्योंकि उदास था चूल्हा हफ्ते से 

उसका साथी मगन तोड़ने मे, 
जिद्दी टहनियों को झुकाकर 
वो नहीं दौड़ा था हमारी तरफ
लेकर अपनी लाठी, जाने क्यों 
जबकि उसे नहीं पता था 
कि हमारी नजर अनायास पड़ी थी 
ऊपर से नीचे तक भीग चुकी 
उस महिला की तरफ 
आखिर ये सवाल था 
उसकी अस्मिता का?

शायद उपहास उड़ाया था अबोध ने 
अट्टालिकाओं से झाँकती 
इठलाती मदहोशियां का 
जहां राजनीति है देह की 
जद्दोजहद नहीं जीवन की 

राहत शिविर

भीड़ से बच कर वो कनात के पीछे है
उसके सामने आज भर पेट भोजन है!

सतर्क निगाहें चहुओर पसरी हैं
दबे पाँव पहुंचे कुछ लोग हैरान है!

मुखिया जी द्रवित हैं दलित की भूख से
इसलिए नहीं बताते की कुत्ते का जूठन है!

शिविरों मे राहत है, घुटना भर ही पानी है 
महादलित सड़कों पर भूख से बेचैन हैं!

ये बिहार के भोजपुर का सरइयाँ बाजार है 
यहाँ भी राहत शिविरो के सच का दर्शन है! 

देह के लिए देह की दी जारही आहुती है
भूख से यहाँ भी एक दुनिया विचलित है!

बिहार एक बार फिर बाढ़ की चपेट मे है
सभी अधिकारी नोट गिनने मे मगन हैं!
  Kajal Lall, Navnit Nirav, Gautam Giriyage,Jitendra Kumar, Sheshnath Pande

राहत शिविर

भीड़ से बच कर वो कनात के पीछे है
उसके सामने आज भर पेट भोजन है!

सतर्क निगाहें चहुओर पसरी हैं
दबे पाँव पहुंचे कुछ लोग हैरान है!

मुखिया जी द्रवित हैं दलित की भूख से
इसलिए नहीं बताते की कुत्ते का जूठन है!

शिविरों मे राहत है, घुटना भर ही पानी है 
महादलित सड़कों पर भूख से बेचैन हैं!

ये बिहार के भोजपुर का सरइयाँ बाजार है 
यहाँ भी राहत शिविरो के सच का दर्शन है! 

देह के लिए देह की दी जारही आहुती है
भूख से यहाँ भी एक दुनिया विचलित है!

बिहार एक बार फिर बाढ़ की चपेट मे है
सभी अधिकारी नोट गिनने मे मगन हैं!
 — with Kajal Lall, Navnit Nirav, Gautam Giriyage,Jitendra Kumar, Sheshnath Pande

डर



डरता हूँ 
राजनीति से 
तुम्हारी विवशता 
और उसकी चपलता से 

कुछ भी नहीं छुपा 
जो मेरे साथ है 
मेरे अंदर ज़िंदा 
लेकिन क्या देख पाते होंगे 
वो सभी जो मुझे जानते हैं 

धर्म संकट मे हूँ 
उसकी मासूमियत 
तार-तार कर रही 
मेरे वजूद को 
जो जुड़ चुका 
मेरे वर्तमान से 

तुम्हारा अतीत 
एक परछाई की शक्ल 
जो रहता है मेरे भीतर 
अमूर्त रूप मे 
अब डरा रहा है.

बाथे पर कुछ कहना है


बाथे नरसंहार पर आज क्यों हो हल्ला है
उन्हे तो जीवित छोड़ देना भी बड़ी सजा है!

तुम्हें तो मिल ही गई दो गज जमीन
पर कुछ मुर्दों को बिन कफन जीना है!

दलितों ने गंवाई थी अपनी मासूम जान केवल
उनके दस्ते ने अपने घरों मे कफन फैलाया है!

तुम शान से मर गए, शहीद कहलाने के लिए
उनके घरों की मासूमियत बिन कफन मुरदा हैं!

दस्ते का दस्तूर खूनी होली कत्ल और दहशत
खुद की बेटियों के अधोअंग भी जख्मी किए हैं!.......मुकेश


ज़िम्मेवार






यहाँ नीरवता है, 
एक शव जल रहा है 
हाँ तुम्हारा शव जल रहा है 
और उसे ताप रहा हूँ मैं 
ढंढ मे गर्मी की खातिर 

सीत मे लिपटी दूब की तरह 
हर रोज नए अरमान लिए तुम 
और तुम्हारे जज़्बात से बेखबर 
मुझे सुबह की ताजगी चाहिए 

शाम हुयी,
लौट रहे पंक्षी घरों को 
और पिंजड़े मे कैद तुम 
बाट जोहती बहेलिये का 

सबकुछ छुपा लेती अपने भीतर 
नहीं बहने देती लावा बनकर कभी 
क्या तुम भी ज़िम्मेवार नहीं 
अपनी पीड़ा का
 — with मुकेश सिन्हा and Sunil Srivastava.

शुभकामना



ये तय हो गया, 
जबकि चिट्ठियाँ नहीं 
और न ही कोई डाकिया ऐसा 
जो खटखटा सके तुम्हारा किवाड़,
बिना पूछे किसी से ताकि 
एक दूरी तुमहार-मेरे बीच बनी रहे, 
परिचितों की दृष्टि मे निरंतर,
और मैं लिख दूँ कागजों मे 
अपनी उत्तेजनाएं, आशीर्वाद और लाड़,
मुझे स्वीकार करनी होगी दूरियाँ 


जैसा कि होता आया है अक्सर 
अपनी बधाई और शुभकामनायें
मैं छोड़ देती किसी गुमनाम चौराहा 
जिसमे शब्द तो नहीं होते 
पर जिसे तुम सहज स्वीकारते 

 
आज, तुम्हारे दुबारा पिता बन जाने पर 
मैं दे रही हूँ एक बार फिर 
वैसी ही बधाई और शुभकामनायें 

 
स्वीकार हो न हो तुम्हें, 
उस चौराहे कभी गुजरो न गुजरो, 
मैंने मान लिया इसे स्वीकृत 
क्योकि अभी अभी मेरी आँख फड़की 
और दिल जो दर-असल तुम्हारा ही है 
धडक कर शोर कर रहा है
कि तुमने दुलारा है नवजात को
उसकी माँ की गोद से लेकर

दिग्गी टंचिकायेँ


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कई बार 
निराश हो जाता हूँ 
घर से निकलने से पहले
भीषण तपिश मे 
कलेजा जैसे मुह को आ जाता है
पर बाहर आते ही
सड़क की दोनों तरफ 
टंचवेग मे मुसकुराती 
दिग्विजय टंचिकाओं का सम्मोहन 
सम्हाल लेता है मुझे 
और लगता है जैसे 
मैं भी बना हूँ 
बाहर सड़क के लिए,
इन टंचिकाओं के लिए...
पर अफसोस!
मैं दिग्विजय नहीं!
इसलिए खुद को गरियाता 
तपिश के बावजूद 
मैं नहीं रुकता सड़क किनारे 
जहां दिग्गी संभावनाओं को तलाशते 
युवाओं की भीड़ लगी रहती है 
टंचिकाओं को निहारने 
उनके जिस्म उघाड़ने को आतुर!!!
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कहावत



जैसे कहावत है 
'बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद' 
'कुत्ते की दूम कभी सीधी नहीं हो सकती' 
उसी तरह एक नया वाक्य 
'तुम क्या जानो सीधी पूंछ का सुख' 
कभी देश के नेताओं पर आजमाना 
और यदि सटीक बैठ जाए तो इसे 
एक कहावत मान लेना
.....................................
मुकेश

दो अश्क


  • साँसे चलती होंगी,
    मखमली उरोजों की आभासी मादकता
    उसके कंपन से उपजी तुम्हारी उत्तेजना

    इन्हे देख कर एहसास होता होगा
    एक साबूत वजूद के जीत लेने जैसा
    पर जिस जिस्म को कुरेदते रहे अबतक
    एक दिन उसकी आत्मा तलाशना
    या फिर अपनी रूह की गहराई तक उतरना

    और जो दिख जाए श्मशान मे
    उस चिता पर दो अश्क बहा देना

फूल



फूल,
चाहे जैसा भी हो 
कैसी भी रंगत हो 

कली,
चाहे कहीं भी खिली हो,
मन आँगन 
या सड़क किनारे 
खोलती गिरह 
और मन का द्वार 

ताजगी,
अनोखा अहसास
खुसबू से लबरेज फिजा 
दिल की गहराईयों तक 
ऊर्जा का संचार 
ये है फूलों का संसार 
कमाल बेमिशाल!
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जनपथ के जून 2013 अंक मे प्रकाशित

अंतिम चीख से पहले


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रात की तनहाइयाँ धिक्कारती हैं 
जब मैं तुमसे या खुद से पूछता हूँ 
तुम्हारे हालत और खयालात के सबब 
अक्सर तड़पकर बैठ जाता हूँ 
कोसों दूर से आ रही वो चीख 
हर रात मुझे जगा देती है 
तुम्हारी जज़्ब होती साँसे 
और सान्निध्य मे भी अकेलापन 
उभर आते हैं सवाल बनकर 
और मैं खुद बनकर रह जाता हूँ 
अनसुलझा सा एक सवाल 
मैं तौलता हूँ और पाता हूँ खुद को 
तुम्हारी परिस्थितियों के विपरीत 
इसलिए दूर चला जाना चाहता हूँ 
दूर बहुत दूर तुमसे 
क्योकि मुझे दर है खुद से 
कहीं मेरी हीं चीख न निकल जाए 
तुम्हारी दफन होती चीख़ों को सुनकर 
क्यों चीखती हो मेरी तरफ मुड़कर 
कभी फुर्सत से आओ और देखो 
पहरे बिठाये गए हैं 
कुओं और मीनार पर 
बंद कर दिये गए हैं सारे गड्ढे 
तोड़ दी गई नदी वाली सड़क 
और उतार लिए गए हैं पंखे छतों से 
दुनिया डर रही है मुझे देख कर 
कि कहीं ढूंढ न लूँ मैं कब्र अपनी 
तुम्हारी अंतिम चीख से पहले 
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जनपथ के जून/2013 अंक मे प्रकाशित

रौद्र चाहिए


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मुझे तेरा रौद्र चाहिए 
थोड़ी सी जगह लूँगा 
जगह तेरी बालकोनी की 
देखूंगा चाँद और तेरी दिल्ल्ली 
परवरिस की सौंधी महक 
खींचती मुझे उस ओर 
दिखता है जिधर चाँद 
परिपूर्ण तेरी बालकनी से 
नथुना भर हवा चाहिए 
जिसमे हो तेरी सुगंध 
एक खनक भरी जीवटता की 
तेरी जिद्द की हो जिसमे अनुगूँज 
वो जिद्द जिसने खड़ा किया 
ढहते शहर को दुबारा 
एक परिवार की शक्ल 

मुझे तेरा रौद्र चाहिए 
तेरी मादकता नहीं भाती 
और न ही डिंपल तेरे गलों के 
तेरी भुजाओं का पाश गंवारा नहीं 
न ही तेरे जिस्म की चादर प्यारी 
मुझे तो बस तेरा रौद्र चाहिए 
और सम्पूर्णता एक नारी की 
मुझे तेरा तांडव भी चाहिए 
तू ही मेरी अर्धांगिनी बने 
मै नहीं चाहता 
मेरी चाहत मैं बनू तेरी सम्पूर्णता 
मैं तुझमे केन्द्रित हो जाऊं 
मेरा वजूद, मेरे सपने 
सब कुछ समा जाए तुझमें 
गंगा आज बहा दूँ मैं उल्टी 
या सूरज ही उगा दू पश्चिम में 
अथवा शाम से ही मान लूँ 
एक नए सुबह की शुरुआत 
तम से लड़ लेंगे मिलकर 
चाहता हूँ यही 
तेरा साथ चाहिए 
तेरे डिंपल नही
और न ही तेरा वक्ष चाहिए 
मुझे तेरा अक्ष चाहिए 
और इसलिए 
मुझे तेरा रौद्र चाहिए...
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मेरी माँ


______________________

उनींदी सी सुबह मेरी 
उसकी जैसे दुपहरी घनी 
खनखनाहट बर्तन और चूडियो की 
तोड़ती भ्रम रात की गहराई का 
सन्नाटे को चीरती वो मधुर झंकार 
होता मिलन मेरे इष्ट से 
चुहानी के अन्दर झांकते ही 

विस्मित करती मुझे 
ठिठुरती सर्दी या बरसात में 
या फिर भीषण गर्मी में 
चूल्हे की तपिश झेलती 
घर का कलह समेटती 
वो हाड मांस का एक पुतला 
खिलौना की शक्ल इस दुनिया में 
औरत का एक स्वरुप 
पर मेरे लिए मेरी इष्ट 
मेरी माँ 
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वेलेंटाइन


हसरतों की एक शाम थी

वो इतनी गुलाबी थी जैसे कि तुम 

और मैं इतना रूमानी जैसे कि ये आकाश 

जरा देखो तो कैसे बाहें फैलाये खड़ा है 

रूह मे घुलने की हसरत लिए उस रोज 

तुम भी तो आ गई थी मेरी बाहों मे 

 

मैं भी कितना पिघला था 

शायद अपनी जड़ों तक 

 

सृष्टि के विस्तार तक 

फैल जाना चाहती थी तुम मुझमे 

और मैं पाताल की गहराई तक 

तुम्हारे वजूद मे घुलता चला गया 

तब जैसा कि तुम्हें चाहिए था 

हमने रचा एक भविष्य 

तुम्हारी हसरतों को मिला आधार 

और फिर पिघलती चली गई शाम 

अगली भोर के आने तक 

 

काश! तुम देख पाती क्षितिज

कितना विस्तार पा गया आज 

कोई शिरा तक नहीं दिखता 

जिसकी ऊंगली थाम मैं पार कर सकूँ 

समय के इस मझधार को 

पहुंचा सकूँ खुद की सलामती 

तुम्हारे बिखरे आँचल तक 

 

इस संध्या जब कि फिर वो दिन आया 

आज हमारा भविष्य लौट रहा 

वहीं पीछे जहां से हमने शुरू किया 

कभी न रुकने वाले द्वंद,

एक ज़ोर आजमाइस की 

 

आज वेलेंटाइन दिवस पर 

उसने दे दिया अपनी पत्नी को 

उसकी उमंगों का वही उपहार 

देखो वो छोड़ गया मुझे भी

वृद्धाश्रम की ड्योढ़ी...................मुकेश